Thursday, February 2, 2012

i dunno

Kuchh to apna kaho ki

Fariyaden nahin sahi jatin

Likh to hum laye the kahne ko

ye rakhen nahin padhi jatin

rah rah ke kahne ko sugbuga hain uthti

lafzon ki purani aadat nahi jati

dil kahta hai sulga doon fir ek foonk se

jale purzon se ye bayaaren sahi nahi jatin

Friday, July 31, 2009

खुद -ग़र्ज़

ठंडी हवा ने मुझसे पूछा,
बुझे अलाव पर फैले हाथ क्यों.

आँच का भुलावा है तू देता,
फैला कर बैठा है हाथ यों

यादों की राख क्यूंकर संजोता,
अब इनको भुला उड़ जाने दो.

हमने सर उठा फरमाया,
सहेजा है ज़रूर राखों को.

पर यादों की तहरीर ना समझना,
सोचना तो ये है की उड़ जाएँ तो

खबर फैलेगी आग की तरह
हो ना हो यहाँ अलाव जलता हो.

Saturday, July 11, 2009

ठरक

ख्वाहिशें थी कभी,
अब तो है ठरक रह गयी.
हुआ होता जो कभी सामना
तो भी कहते की तलब रह गयी.

रुख़ भी साधा था कभी,
बेरूख़ी वो तक़दीर साथ रह गयी
थे इरादे ठोस-ओ-बुलंद अपने
दलदल में धँसी बुनियाद साथ रह गयी.

कह तो देते हम कभी
किस्सा जो वो रात कह गयी.
पर खरोंची हैं दीवारें
टूटे नाख़ून हाथ टूटी दवात रह गयी.

Saturday, May 9, 2009

दिनचर्या

कभी तो शाम होगी
ये सोच धूप में आ गये
पर सूरज के इरादे और थे
झुलसे हुए ख़यालात ये
अपने ही हैं
इतना तो तय था
बनता था,हर हालत में.
रात ढले संग चाँदनी खेलेंगे
अधजगे अधसोए चकोर ये
अपने ही हैं
कुछ और ना सही, ना सही
सुबह कभी तो आएगी
अरुणिमा संग हम भी चहकेंगे
धुत अंधेरे के ख्वाब ये
अपने ही हैं
गुनगुनी होगी शायद
धूप खिली है जो बाहर में
सिहरन दूर होगी कम्स्कम
झुलसे हुए ख़यालात ये
अपने ही हैं

Wednesday, April 29, 2009

नाकाम कोशिशें

जोड़ तोड़ किस्सा तो खूब गढ़ा था,
बस कम्बख़्त बयानी मात दे गयी.

दिल तो हमारा देवदास सा गमगीन था,
बेतरतीब मौसम की रवानी मात दे गयी .

डुबा देता सबको उसमें ऐसा दर्द था,
बेमौका इक चुहल अंजानी मात दे गयी.

संग सबके ठठा के हँस लेता था,पर आह
सच थी पूरी, वो कहानी मात दे गयी.

और क्या कहें, शह पे थी उनकी बिसात,
बस एक घर से अपनी रानी मात दे गयी.

Wednesday, April 15, 2009

आवारा रौनकें

ये तो बेहतर हुआ की ना पहचान पाए हमें वो,
हम होते शर्मसार, नज़रें उन्हें चुराना पड़त्ता जो.

बीती यादों के कुछ जाम छन जाते साथ उनके तो,
बेमुरव्वत बन जाते हम, बेतकल्लुफ भले हो जाते वो.

रौनक थे अपनी तमाम रंगीन महफ़िलों के वो,
क्या कहते जो हम पूछ लेते गैर महफ़िल में क्यों.

औ ज़ाया हो जाता दम वो भरा था हमने जो,
रौनक ऐसी बखुदा ना किसी और महफ़िल में हो.

Friday, April 10, 2009

दुन्दुभि

जो है सुगबुगाती, दम तोड़ती सी
दबी गुमनाम राख की परतों तले,
कुछ साँस में आग भर फूँक ऐसी मार के
चिंगार वो इक बार ज्वाला बन के जो जले .

जो सिसकती सी सारी रात खुद जले,
बन परवाना तू उस शमा को ऐसी ताब दे.
भभक उठे वो बन लपट विकराल प्रलय काल
संग अपने सारा का सारा लाक्षागृह वो ले जले.

फीके से खारे ये जलते आँसू तेरे
ना समझना तू की ये बेकार ही जले
भर के अंजुरी मार सागर में इन्हे, फिर देख
अश्रु बिंदु ये बड़वानल बन के जो जले.

डर ना जाना मेघों से खुराफाती इंद्र के
साथ मधुसूदन, बुलंद रख तेरे तू हौसले.
चाप चढ़ा गांडीव तू आकाश ये टंकार दे,
फिर बता समूचा खांडव वन जो ना जले.